दोस्तों इस ब्लॉग पोस्ट मे आपको पौराणिक ग्रंथो पर आधरित बेहद रोचक पौराणिक कथाएं (Pauranik Katha), धार्मिक कथा (Dharmik kahaniya) पढ़ने को मिलेगी। यह सभी कथाएं धार्मिक ग्रंथो और कहानियों से ली गई है।
इन्हे आप अवश्य पढ़े और कमेंट के द्वारा हमें अपने विचार बातएं की आपको यह पौराणिक कथाएं (mythological stories in hindi) कैसी लगी।
Dharmik kahaniya – Pauranik Katha – mythological stories in hindi
सहस्रबाहु अर्जुन एक पराकर्मी और शूर वीर योद्धा थे । भगवान् द्वारा उन्हें हर प्रकार की सिद्धियां प्राप्त थी और वायु की गति से पूरे संसार में कोई भी रूप धारण कर जब चाहे विचरण कर सकते थे।
पुराणो के अनुसार शास्त्र बाहु ने महाराज हेय की 10वी पीढ़ी मात पद्मनी और महाराज कृतवीर्ये के परिवार में हुआ था। चन्द्रवंश कृतवीर्ये के पुत्र होने के कारण इन्हे कृतवीर्ये अर्जुन के नाम से भी जाना जाता था।
इसके आलावा पुराणों और ग्रंथो मे हैहयाधिपति, सहस्रार्जुन, दषग्रीविजयी, सुदशेन, चक्रावतार, सप्तद्रवीपाधि, कृतवीर्यनंदन, राजेश्वर आदि आदि के नामों का भी वर्णन है।
कृतवीर्ये अर्जुन का उल्लेख कई वेद, वाल्मीकि रामयण, महाभारत जैसे कई हिन्दू धर्म ग्रंथो में भी मिलता है । भगवान् विष्णु पुराण के अनुसार कृतवीर्ये -अर्जुन की उत्पाती श्री हरी विष्णु और माता लक्ष्मी द्वारा हुई है।
धार्मिक कथाओं और ग्रंथो के अनुसार सहस्रबाहु अर्जुन विष्णु के दसवे अवतार दत्तात्रेय के उपासक थे और अपनी कठोर तपस्या वा भक्ति आराधना से भगवान् दत्तात्रेय को प्रसन्न क्र उनसे 10 वरदान प्राप्त किये थे । जिसमे उन्हें हजार भुजाओ का वरदान भी मिला था और तभी से इनका नाम सहस्रबाहु अर्जुन व बाहुबली भी कहा जाने लगा था।
दत्तात्रेय दावरा वरदान पाने के बाद सहस्रबाहु महिस्मती नगरी के चक्रवर्ती सम्राट बन गए थे.. वर्तमान में यह नगरी मध्य प्रदेश में महसेवर नाम के नाम से जाना जाता है।
सहस्त्रबाहु जी की जयंती और मंदिर
मध्य प्रदेश के वर्तमान शहर माहेश्वर में सहस्रबाहु राजेस्वर नाम का भव्य मंदिर भी है जहा प्रतिवर्ष कार्तिक मॉस की शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि को सहस्रबाहु की जयंती मनाई जाती है जो दीवाली के ठीक बाद पड़ती है । सहस्रबाहु अर्जुन की जयंती के समय महेस्वर नगर में उत्सव जैसे माहोल रहता है और कई दिनों तक उनकी पूजा अर्चना भी की जाती है।
जो एक बड़े भंडारे के साथ समाप्त होता है। सहस्रबाहु के मंदिर के बीचो बीच शिवलिंग वा राजेश्वर सहस्त्रबाहु जी की समाधि है। जहा लगभग 500 वर्षो से घी के दीपक अखंड प्रज्वलती है।
हिन्दू शास्त्रों के अनुसार एक बार रावण सहस्रबाहु को हारने की इच्छा से उसके नगर महिस्मती पहुँच गया जो नर्मदा नदी के तट पर बसा हुआ था । रावण नर्मदा नदी के तट पर पहुंच अपनी शक्तियों को बढ़ने के लिए भगवान् शिव की आराधना करने लगा।
वही कुछ दूरी पर सहस्रबाहु भी अपनी रानियों के साथ नदी मे जलविहार कर रहे थे और जल विहार करते समय सहस्रबाहु ने अपनी हजारो भुजाओ से नर्मदा नदी के पानी के प्रवाह को रोक दिया।
जिससे एक तरफ पानी का जल स्तर बढ़ने लगा अचनाक नदी में पानी जल स्तर बढ़ने से तट के किनारे बना रावण का शिवलिंग भी बह गया । यह देख रावण ने अपने सैनिको को नदी का यू अचानक जल स्तर बढने का कारण पता लगाने के लिए भेजा।
जब सैनिको ने रावण से आकर नदी के पानी रुकने की बात बताई तो । रावण क्रोधित हो सहस्रबाहु को युद्ध के लिए ललकारने लगा। इधर सहस्रबाहु भी एक प्रकर्मी योद्धा । रावण द्वारा बार बार ललकारने पर वह भी रावण के समक्ष उपस्थित हो गया और देखते ही देखते दोनों योद्धाओ के बीच महा युद्ध छिड़ गया दोनों के बीच युद्ध बराबरी का हो रहा था ।
यह महा युद्ध कई दिनों तक चला अंत म सहस्रबाहु अर्जुन ने इस युद्ध से क्रोधित हो अपने विशाल और विकराल रूप मे आ गया। सहस्रबाहु अर्जुन के विकराल रूप के सामने रावण बोना सा प्रतीत हो रहा था । सहस्रबाहु ने रावण को अपनी हाजरो भुजाओ में जकड लिया।
रावण ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी फिर भी वह आजाद नहीं हो पाया। सहस्रबाहु ने रावण को बंधी बना अपने कारागार में डाल दिया ।
लेकिन बाद मे रावण के दादा महर्षि पुलत्श्य ने शास्त्र बहु से रावण को छोड़ने का आग्रह किया और सहस्रबाहु ने रावण को आजाद कर दिया। अंत में रावण ने सहस्रबाहु से मित्रता कर लंका लौट गया।
दोस्तों महाभारत कथा से तो आप भली-भांति परिचित होंगे ही महाभारत युद्ध क्यों और कैसे और किन योद्धाओं में लड़ा गया था यह तो आपको पता ही होगा और भगवान श्री कृष्ण ने किस का साथ दिया था।
लेकिन इसमें कई ऐसे योद्धाओं से जुड़े कई रोचक तथ्य और रहस्य भी हैं। जिन्हें आप को जानना चाहिए ऐसे ही एक पौराणिक कथा (Pauranik Katha, dharmik kahani) अभिमन्यु से भी जुड़ी है इस रोचक कथा के बारे में हम नीचे विस्तारपूर्वक बताएंगे।
अर्जुन और सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु को तो आप लोग जानते ही होंगे की महाभारत युद्ध मे अभिमन्यु वीरगति को प्राप्त हो गए थे। लेकिन बहुत से लोगों के मन में यह प्रश्न अवश्य होता होगा कि आखिर सर्वशक्तिमान श्री कृष्ण ने अपनी ही बहन सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु को क्यों नहीं बचाया था।
जबकि अर्जुन और पांचों पांडवों की युद्ध के अंत तक उनके रक्षा कवच बने रहे थे तो अभिमन्यु को क्यों मर जाने दिया अगर चाहते तो लीलाधारी भगवान श्री कृष्ण अपने सुदर्शन चक्र भेज अभिमन्यु को चक्रव्यूह से बाहर ले आते और अभिमन्यु का वध नहीं हो पाता परंतु श्री कृष्ण ने ऐसा नहीं किया।
इसलिए कारण नहीं बचाया श्रीकृष्ण ने अभिमन्यु को
कहां जाता है जब भी धरती पर धर्म और सत्य की हानि होने लगे तो भगवान को नियति के अनुसार धरती से अधर्मियों और अत्याचारियों का नाश करना होता है और इस उद्देश्य हेतु भगवान स्वयं धरती पर जन्म लेते हैं और उनके इस उद्देश्य में सहायता हेतु विभिन्न देवी-देवताओं को भी अपने पुत्र को भेज या स्वयं जाकर धरती पर जन्म लेना होता है।
ऐसा ही जब द्वापर युग में भगवान विष्णु ने श्री कृष्ण अवतार में जन्म लिया था तब ब्रह्मा जी ने और सभी देवी देवताओं को भी श्रीकृष्ण की सहायता हेतु धरती पर जन्म लेने का आदेश दिया था।
किसने किया था ब्रह्मा जी के आदेश का विरोध ?
ब्रह्मा जी के इस आदेश का सभी देवी देवताओं ने स्वागत किया था । परंतु चंद्रमा ने इस आदेश का विरोध किया और अपने पुत्र वरचा को पृथ्वी पर जन्म लेने से इनकार कर दिया।
लेकिन जब सभी देवताओं ने मिलकर चंद्रमा को समझाया कि धर्म की रक्षा करना ही हम देवताओं का परम कर्तव्य और धर्म है । इसलिए हम सभी को ब्रह्मा जी का आदेश का पालन करना है यह हमारा दायित्व और कर्तव्य भी है।
चन्द्रमा के इस शर्त के कारण ही अभिमन्यु को मरना पड़ा
सभी देवताओं के समझाने पर चंद्रमा मान तो गए पर फिर भी उन्होंने एक शर्त भी रख दी कि यदि मेरा पुत्र धरती पर जन्म लेगा तो वह ज्यादा दिनों तक धरती पर नहीं रुकेगा और महाभारत युद्ध में अपना कार्य समाप्त होते ही वह मेरे पास लौट आएगा।
इसके साथ ही वह युद्ध में अपने पराक्रम से बड़े-बड़े महारथियों को भी चकित कर खोर युद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त होगा और उसके इस अदम्या साहस को युगो युगो तक याद रखा जाएगा।
दोस्तो चंद्रमा पुत्र “वरचा” ही अभिमन्यु थे जिसने धरती पर ब्रह्मा के आदेश का पालन कर श्री कृष्ण की सहायता के लिए जन्म लिया था।
चंद्रमा के शर्त अनुसार ही श्री कृष्ण ने अभिमन्यु की नियति में दखल नहीं दिया और अभिमन्यु महाभारत युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो अपने पिता चंद्रमा के पास चले गए।
Parshuram Story In Hindi – पुराणों के अनुसार भगवान परशुराम को श्री हरि विष्णु के अवतार माना गया है। भगवान विष्णु का यह सबसे क्रूर अवतार था। शिव जी द्वारा प्राप्त परशु के कारण ही उनका नाम परशुराम पड़ा था।
परशुराम महर्षि जमदग्नि और माता रेणुका की संतान थे। परशुराम उनके सबसे छोटे कर लाडले पुत्र थे पांचो भाइयों में परशुराम ही सबसे तेजस्वी और न्याय पूर्ण योद्धा थे। धरती पर उनके जैसा योद्धा कोई नहीं था।
परशुराम अपने माता-पिता के सबसे लाडले और आज्ञाकारी पुत्र होते हुए भी उन्होंने माता का सिर काट दिया था आखिर उन्होने ऐसा कठोर कदम क्यों लेना पड़ा ऐसा क्या कारण था जो उनकी माता के जीवन से भी बढ़कर था। आगे हम इसके बारे में विस्तारपूर्वक पड़ेंगे।
परशुराम के पिता जगमदनी बड़े ज्ञानी और तपस्वी थे उन्हें सभी प्रकार की सिद्धियों का ज्ञान था। परशुराम अपने पिता की आज्ञाकारी पुत्र थे और पिताजी की हर आज्ञा को पत्थर की लकीर मान हर हाल में पूर्ण करते थे।
माता रेणुका से हो गई थी यह एक भूल और महर्षि जमदग्नि हुए क्रोधित
एक बार की बात है ऋषि जग मदनी के स्नान के लिए पत्नी रेणुका नदी में पानी लेने के लिए गई वही कुछ दूरी पर राजा चित्र भी स्नान कर रहे थे। राजा चित्ररथ को देख वह काफी समय तक वह उन्हें ही स्नान करते देखती रही। उनका मन विचलित हो गया और भूल गई कि उन्हें अपने पति के लिए स्नान का पानी ले जाना था।
काफी समय हो गया महर्षि जमदग्नि पत्नी रेणुका की प्रतीक्षा में बैठे उनका इंतजार करते रहे। जब पत्नी रेणुका आश्रम पहुंची तो ऋषि जगमदनी ने अपनी ध्यानशक्ति से उनके देर में आने का कारण ज्ञात करना चहा इससे उन्हें सब ज्ञात हो गया और महाऋषि जगमादनी अपनी पत्नी पर क्रोधित हो उठे।
पिता ने दया चारो पुत्रों को दिया अपनी ही माँ का सर काट देने का आदेश
उसी समय उनके चारो पुत्र रघुवंशी शुरू वस्तु और विश्वासों भी आश्रम आ गए थे। महर्षि जमदग्नि ने अपने चारों पुत्रों को बारी-बारी से अपनी मां का वध करने को कहा पर किसी ने भी माँ की मोहा वश ऐसा करने का हिम्मत नहीं जुटा पाए।
किसी ने भी पिता की आज्ञा को नहीं माना और सभी पीछे हट गए क्योंकि हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार किसी भी स्त्री की हत्या को बहुत बड़ा पाप माना गया है और यही अपनी ही मां का वध करने की बात थी लेकिन पिता आज्ञा का विरोध करना भी एक बड़ा अपराध है।
चारों पुत्र समझ नहीं पा रहे थे क्या करना उचित होगा जब ऋषि के चारों पुत्रों ने उनकी आज्ञा को नहीं माना तो अपने चारों पुत्रों को चेतना बुद्धि और विचार नष्ट होने का शार्प दे दि।
परशुराम ने ही अपने पिता के आदेश क्यों माना
वही थोड़ी देर में परशुराम भी आश्रम आ गए । परशुराम को देख महर्षि जमदग्नि ने उन्हें अपनी मां की और अपने चारों भाइयों का वध करने का आदेश दिया । अपनी पिता की आज्ञा पाकर उन्होंने अपनी माता और चारों भाइयों का वध कर डाला यह देख ऋषि जगमग काफी प्रसन्न हुए और परशुराम से वर मांगने के लिए कहा ।
परशुराम जानते थे कि उनके पिता बहुत बड़े ज्ञानी हैं और सभी प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हैं । उन्हें अपने पिता की बातों से पूर्ण से अवगत था कि वह अपने पिता के आदेश मानेंगे तो उनके पिताजी उन्हें मुंह मांगा वरदान देंगे ।
इसलिए उनके पिताजी जब उनसे वरदान मांगने को कहते हैं तो परशुराम ने अपनी मां का और अपने चारों भाइयों को पुनर्जीवित करने का वरदान मांगते है। इससे उनके पिता ने उनकी इच्छा मान माता रेणुका और चारों भाइयों को जीवित हो गए इस तरह परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा भी मानी और अपनी माता और भाइयों को जीवित भी करा लिया।
परशुराम ने अपनी पुनः जीवित माँ हत्या पाप के लिया किया पारयश्चित
परन्तु माता तो पुण्य जीवित हो गई पर उन पर अपनी मां हत्या का पाप चढ़ गया इस पाप से मुक्ति पाने के लिए परशुराम एक पर्वत पर शिव आराधना करने के लिए चले गए। कई वर्षों की कठोर तपस्या से प्रसन्न शिवजी ने उनके समक्ष आ गए और उन्हें मृत्यु कुंडली के जल में स्नान करने के आदेश दिया तभी वह अपनी माता के बाप से मुक्त हो पाएंग परशुराम ने शिवजी कहे अनुसार ऐसा ही किया और अपने माता हत्या के पाप से मुक्ति प्राप्त की
यह मृत्यु गुंडे हो वर्तमान राजस्थान के चित्तौड़ जिले में है स्थित है इस स्थान को मेवाड़ के तीर्थ स्थल भी कहा जाता है इस स्थान से कुछ दूरी पर एक पहाड़ी पर भगवान शिव जी का मंदिर जिसे परशुराम जी ने खुद अपने परसों से काटकर बनाया था ।
Parshuram Story In Hindi – एक बार सहस्त्रबाहु अर्जुन अपनी सेना के साथ जंगल में ब्रह्मण के लिए गए होते है। उसी जंगल में परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि का आश्रम भी रहता है ।
सहस्त्रबाहु अर्जुन जंगल में विश्राम करने लिए लिए जमदग्नि के आश्रम देख अपनी सेनाओ के साथ आश्रम की और चल देते है ।
आश्रम पहुंचने के बाद ऋषि जमदग्नि सहस्त्रबाहु अर्जुन और उनकी सेनाओ का खूब सेवा सत्कार करते है और अपनी कामधेनु गाय की सहायता से उनका और उनकी सेनाओ के लिए राजसी भोजन की व्यवस्था भी करते है।
ऋषी जग्मद्नी द्वारा सहस्त्रबाहु और उनके सानिको का इत्नी जल्दी राजसी भोजन की व्यव्स्था देख अचम्भित हो जाते है और सोचने लगते है की इतनी जल्दी और वो भी राजसी भोजन का प्रबनध एक साधरण ऋषि मुनि कैसे कर सकता है। जरूर इसके पास कोई रहस्य है। सहस्त्रबाहु ऋषि जग्मद्नी से यह सभी व्यवस्था करने का राज पूछते है ।
चमत्कारी कामधेनु गाय को बालपूर्वक ले जाते है
ऋषि जगमदनी सहस्रबाहु अर्जुन को अपनी गाय कामधेनु के बारे में बातते हुए कहते है की महाराज यह सब इस गाय की कृपा है। कामधेनु गाय को देख और उसकी इस चमत्कार से प्रसन्न उस पर मोह जाते है और ऋषि जमदग्नि से कामधेनु गाय को अपने साथ ले जाने की इच्छा जाहिर करते है। परन्तु ऋषि जग्मद्नी कामधेनु गाय को ले जाने से इंकार कर देते हैं।
ऋषि जग्मद्नी द्वारा मना करने पर सहस्रबाहु क्रोधित हो जाते है और बलपूर्वक काम धेनु गाय को अपने साथ ले जाते है।
अपने पिता के अपमान सुन परशुराम क्रोधित हो उठते है
कुछ समय बाद परशुराम जब आश्रम आते तो उन्हें उनके पिता घटना के बारे में बताते है और यह सुन परशुराम अत्यंत क्रोधित हो उठते और अपना फ़ारसु उठा सहस्रबाहु के नगर महिस्मती की और चल देते हैं।
सहस्रबाहु कामधेनु और अपनी सेनाओ के साथ रास्ते में ही होते है । सहस्रबाहु परशुराम को अपनी ओर त्रीव गति से आते हुए देख अपनी सेनाओ को परशुराम को रोकने का आदेश देते है।
सहस्रबाहु की सेना परशुरराम को रोकने के लिए उनके पास आती है पर कुछ पालों मे ही परशुराम हजारो सेनिको के रक्त से युद्ध भूमि को लाल कर देते है । अपनी सेनाओ का नष्ट होता देख सहस्रबाहु अर्जुन स्वयं परशुराम से युद्ध करने के लिए आ जाते हैं और घनघोर युद्ध प्रारम्भ हो जाता है।
सहस्रबाहु का वध
परन्तु सहस्रबाहु के लिए परशुराम के समक्ष टिक पाना असंभव ही था सहस्रबाहु जब अपनी हजारो भुजाओ से परशुराम को जकड़ने के लिए आगे बढते है तो परशुराम अपनी परसु से उनकी एक एक कर सभी भुजाओ को काट उसका सर धड़ से अलग कर डालते है ।
सहस्रबाहु अर्जुन वध के बाद भगववान परशुराम अपनी कामधेनु गाय को लेकर अपने पिता को सौप देते है। ऋषि जग्मद्नी अपने गाय को देख काफी प्रसन्न हो जाते है और अपने पुत्र परशुराम को गले लगाकर उन्हें आशीर्वाद देते है।
क्यों परशुराम पृथ्वी को 21 बार क्षत्रिय विहीन करते है
कहा जाता है जब सहस्रबाहु के पुत्रों ने अपने पिता का प्रतिशोध लेने के लिए परशुराम के पिता का छल पूर्वक वध कर देते है। जब जमदन्गि का वध हो जाता है तो उनकी पत्नी रेणुका भी उनके साथ अग्नि में लीन हो जाती है।
इस घटना से परशुराम अति क्रोधित हो सहस्रबाहु के पुत्रों का वध कर देते है और साथ ही महिस्मती राज्य को भी उजाड़ डालते है और पृथ्वी से 21 बार सभी क्षत्रियों का नाश कर पृथ्वी को क्षत्रियविहीन करने के बाद परशुराम एक बड़े पर्वत पर जा भगवान् शिव के ध्यान में लीन हो जाते है।
सुदर्शन चक्र पौराणिक कथाओं (Pauranik Katha) के अनुसार ऐसा अस्त्र है जो विरोधी के हर वार को विफल कर देता था ऐसा अस्त्र जो अभेद और अपना कार्य को पूरा करने के बाद ही वापस आता था । आखिर महाभारत के बाद सुदर्शन का क्या हुआ और अब सुदर्शन चक्र कहां है और भगवान विषणु जी को यह अस्त्त्र कैसे प्राप्त हुआ था।
अखिर भगवान विषणु जी को सुदर्शन चक्र कैसे प्रप्त हुआ !
Dharmik kahaniya – Pauranik Katha – mythological stories in hindi
दरअसल सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का अस्त्र था और इसे उनके ही अवतार धारण कर सकते थे । यह अस्त्र एक साथ कई कार्य कर सकता था इसके निर्माण के पीछे भी कई अलग-अलग मान्यताएं है ।
शिव पुराण के अनुसार एक बार भगवान विषणु कैलाश पर्वत पर चले गए और वहां पहुंचकर वह विधि पूर्वक शिव की तपस्या करने लग गए । श्री विष्णु भगवान ने कई हजार नामों से शिवजी की स्तुति कर तथा प्रत्येक नाम उच्चारण के साथ एक कमल पुष्प शिवज को अर्पण करते थे ।
भगवान विष्णु की उपासना कई वर्षों तक निर्वात चलती रही एक दिन भगवान शिव परमात्मा ने विष्णु की भक्ति की परीक्षा लेनी चाही । भगवान विष्णु हर बार की तरह एक कमल पुष्प शिव को अर्पण करने के लिए लेकर आए तब भगवान शिव ने एक कमल पुष्प कहीं छुपा दिया ।
शिव माया के द्वारा इस घटना का पता भगवान विष्णु को भी नहीं लगा उन्होंने गिनती में एक पुष्प कम पाकर उसकी खोज आरंभ कर दी ।
श्री भगवान विष्णु ने पुरे ब्रह्मांड का भ्रमण कर लिया परंतु उन्हें वह पुष्प नहीं नहीं मिला । तत्पश्चात भगवान विष्णु एक कमल के बदले अपना एक नेत्र उस स्थान अर्पित कर दिया ।
भगवान विष्णु के इस त्याग से खुश होकर भगवान शिव प्रकट हो विष्णु भगवान को सुदर्शान चक्र कि भेट करते है। बोलते है यह चक्र सृष्टि संचालन के कार्य के लिए उपयोग में आएगी ।
अन्य पुराणों के अनुसार यह बताया गया है कि सुदर्शन चक्र का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने सूर्य की अभेद राख से उन्होंने तीन चीजों का निर्माण किया था पहला पुष्पक विमान, त्रिशूल और सुदर्शन चक्र ।
जबकि ऋग्वेद के अनुसार सुदर्शन चक्र का वर्णन अलग ही तरह से किया गया है इसमें सुदर्शन चक्र को समय का चक्र बताया गया है कि वह समय को भी माप सकता था सुदर्शन चक्र से ही भगवान विष्णु ने माता सती के पार्थिव शरीर के 51 हिस्से किए थे महाभारत काल में भी श्री कृष्णा ने शिशु पाल का वध सुदर्शान चक्र से ही किया था ।
महाभारत में जब अर्जुन ने जब जयद्रत को सूरज ढलने से पहले मारने का वचन लिया जब श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से ही सूर्य को ढक लिया था लेकिन इसके बाद सुदर्शन चक्र का कोई भी कोई वर्णन नहीं मिलता ।
आखिर जब श्री कृष्ण ने देह त्याग किया तब सुदर्शान चक्र का क्या हुआ ?
इसका जवाब हमें भविष्य पुराण में मिलता है जिसमें बताया गया है कि सुदर्शन चक्र को भगवान विष्णु या उनके अवतार के सिवा ना ही कोई धारण कर सकता है और न ही कोई चल चला सकता है जब श्री कृष्ण ने देह त्याग किया सुदर्शन चक्र वही धरती में समा गया और भविष्य में जब कल्कि अवतार जन्म लेंगे तब वही सुदर्शन चक्र को दोबारा पृथ्वी गर्भ से ग्रहण करेंगे ।
कलयुग के अंत के समय जब बुराई अपनी चरम पर होगी तब भगवान परशुराम और हनुमान कलकी अवतार में आएंगे और उन्हें प्रशिक्षण देंगे तब युद्ध में कल्कि अवतार सुदर्शन चक्र को धारण कर उसका उपयोग करेंगे जिससे वह बुराई अंत कर देंगे।
परंतु हम ऋग्वेद में बताएं जल चक्र का वर्णन देखें तो सुदर्शन चक्र ऐसा अस्त्र नहीं था जैसा हम समझते हैं । उसमें बताया गया है सुदर्शन चक्र समय के चक्र को कहा गया है । इसी का इस्तेमाल भगवान विष्णु करते हैं समय के अंतराल का उपयोग कर वह किसी बी विरोधी को शक्तिहीन कर देते हैं ।
महाभारत में भी जब श्री कृष्ण ने अर्जुन को विराट रूप दिखाया था तब सुदर्शन चक्र के इस्तेमाल से ही समय को रोक दिया था तब रुके हुए समय में ही श्री कृष्ण अर्जुन को गीता का पूरा ज्ञान दिया था अगर हम ऋग्वेद के ज्ञान से समझें तो सुदर्शन चक्र कोई भौतिक अस्त्र था ही नहीं जो कोई और देख या धारण कर सके यह सृष्टि के संचालक भगवान विष्णु का अवैध गुण है जो हमेशा उनके और उनके अवतारों के साथ रहेगा।
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